बस्तर विलाप
अबोधें की मां, प्रकृति की मां
माँ दंतेश्वरी
एक ही पुकार, आती हजारों बार
मां तेरें सीने से बहती इंद्रावती,शबरी
देती हमें आनंद, संतोष और शक्ति
मां हम तेरे बच्चे, नतमस्तक हमेशा
मां सरपर धारे है सोने की खान
चरणें पर खनिजों का अंबार
हाथों से करती है हमें प्यार
गोद पर बैठे हम
सुरक्षित सुखी है हमारा संसार
अबूझमाड हमेशा अबूझ रहा
क्योंकि बूझ सकने वाले अबूझ रहे
और सदीयों पुरानी मनोरंजन प्रथा महफूज रही
मानवों जानवरों की लडाई के चरम का
आनंद आदत बन गया
प्रोजेक्ट टाइगर की तरह
प्रोजेक्ट ट्राईब यानि आदिवासी अभ्यारण बना दिया
साजिश ही उन माटीपुत्रों के प्रति
जो अपने और उनके बीच समय का अंतराल पैदा किया
अबूझमाड अबूझ ही है
‘राह बताओ’ पहेली की तरह
असंख्य राहें हैं
पर कौन सी है उन तक नही पता
हम हैं आदिपुत्र हम हें वनपुत्र
हम हैं माटीपुत्र हम हैं वादीपुत्र
पर अभी भी नही है ये सब हमारा
हम उनसे हैं
हमारे हाथों की काष्ठ कला निष्प्राण हो चली हे
क्योंकि उसकी प्राणवायु नही है हमारी
जिस संस्कृति के नाम पर हमारा संरक्षण किया
उस पर भी नजर लग गई
वस्त्रहीनता अशिक्षा मद्यपान
हमारी संस्कृति के द्योतक बने
जैसे ही शहर के आसमान मे हेलीकाप्टर की आवाज गूंजती है
दिल रोता है और रूह अंदर तक कंाप उठती है
दूर कंही नव विधवा के रोने की आवाज आती है
टूटती चूड़ियाँ दिमाग की नसों को हिलाती है
चारों ओर अनिश्चित भविष्य की परछाइयां लहराती हैं
सरकारी रजिस्टर मे शहीदों की संख्या और बढ जाती है
अनिश्चित भविष्य मे निश्चिंतता का सपना बुनना
और अपने लिये अकाल मौत चुनना
अंधें को राह दिखाना बहरो कां समझाना
बहुत मुश्किल है भटको को घर पहुंचाना
जनता की मजबूरी है सलवा जुडूम
क्रोध मे बने हैं अग्नि से ज्वाला..........
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